Friday, May 20, 2022

Article -1, मानवाधिकार और जनजातीय महिलाएं

 

मानवाधिकार और जनजातीय महिलाएं

(महिला सशक्तिकरण के विशेष सन्दर्भ में)

 

सार : यह लेख महिला सशक्तिकरण के इस दौर में जनजातीय महिलाओं की स्थिति को मानवाधिकार के दृष्टिकोण से स्पष्ट करता है। इस लेख में जनजाति समाज की उन महिलाओं के सम्बन्ध में विश्लेषण किया गया है, जो इस समाज में प्रचलित एक कुप्रथा डायन प्रथा से प्रताड़ित हैं। जनजाति समाज के दृष्टिकोण से देखें तो यह प्रथा उनकी सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा है, परन्तु, कोई भी ऐसी व्यवस्था जो किसी भी प्राणी के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाए, उसके अधिकारों का हनन् करे, या उसे दयनीय जीवन जीने को मजबुर करे, सामाजिक व्यवस्था नहीं कही जा सकती। सामाजिक प्रथा के नाम पर किसी महिला का शोषण मानवाधिकार के सारे दावे खारिज करता है। अतः महिला सशक्तिकरण के लिए आवश्यक है की ऐसी सभी प्रथाओं का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोंण से विश्लेषण किया जाय जो महिलाओं के शोषण के लिए उत्तरदायी हैं। 

संकेत शब्द : जनजाति समाज, मानवाधिकार, सशक्तिकरण, डायन, कुप्रथा

            मानव एक बुद्धिमान व विवेकशील प्राणी है और इसी के कारण उसे अपने विकास के लिए कुछ मूलभूत अधिकार स्वतः ही प्राप्त रहते हैं और चूंकि ये अधिकार उसे अपने अस्तित्व के कारण स्वतः ही प्राप्त होते हैं, इसलिए ये अहरणीय अर्थात् किसी के भी द्वारा छिने भी नहीं जा सकते, जिन्हें हम सामान्यतः प्राकृतिक अधिकार कहते हैं। इन्हीं प्राकृतिक अधिकारों व राज्य द्वारा प्रदत्त अधिकारों को हम मानव अधिकार कहते हैं, जिनका सभी व्यक्तियों के लिए समान महत्व होता है, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, लिंग, भाषा तथा राष्ट्रीयता के हों। ये अधिकार न केवल व्यक्तियों की स्वतन्त्रता समानता तथा सामाजिक कल्याण की गरिमा के रक्षक तथा पोषक होते हैं वरन् ये भौतिक तथा नैतिक कल्याण की वृद्धि में भी सहायक होते हैं अर्थात् इन अधिकारों के अभाव में केाई भी व्यक्ति अपना सर्वांगीण विकास नहीं कर सकता है और इसी कारण इन अधिकारों को मूल अधिकार, प्राकृतिक अधिकार और जन्मसिद्ध अधिकार भी कहा जाता है।

      मानव के जन्म सिद्ध अधिकार ही मानव अधिकार कहे जा सकते हैं। मूलरूप में इन अधिकारों को स्वीकार करने से ही मानव सभ्यता का जन्म और विकास होना संभव हुआ है। जीवन की मुख्य आवश्यकताओं में मानव का सम्मान एवं रोटी, कपड़ा और मकान का महत्त्व सर्वाधिक है। ये अधिकार मानवता के वृक्ष से स्वतः ही प्रस्फुटित होने वाले वे अंकुर हैं, जिन्हें स्वस्थ वातावरण ही आगे बढ़ाने में सहायक होता है। मानव अधिकार ही वे अधिकार हैं जो उसके व्यक्तित्व विकास में सहायक है फिर चाहे वो स्त्री हो या पुरूष, जनजाति वर्ग हो या गैर-जनजाति वर्ग।

 जनजाति समाज

      भारतीय समाज एक अति प्राचीन समाज है। यहां विभिन्न जाति, जनजाति, धर्म और वर्ग के लोग रहते हैं, और जनजातियां इसका अभिन्न अंग हैं। सामान्यतः जनजाति उसे माना गया है जिसका एक भौगोलिक क्षेत्र में ही निवास होता है। उसकी एक सामान्य संस्कृति, भाषा, राजनीतिक संगठन एवं व्यवसाय होता है और एक जनजाति के सदस्य अन्तर्विवाह के नियमों का पालन करते हैं। भारत भौगोलिक दृष्टि से विशाल आकार का देश है। भौगोलिक विशेषता के कारण यहां अनेक ऐसी जनजातियां भी निवास करती हैं जो आज भी सभ्यता से पर्याप्त दूर हैं। अनेक जनजातियां सुदूर जंगलों, पहाड़ों तथा पठारी क्षेत्रों में अपना जीवन यापन करती हैं।

      वर्तमान में यह जनजातियां विकासशील सभ्यता के साथ जुडनें का प्रयास कर रही हैं। प्रगतिशील समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर एक नया अध्याय जोड रही हैं। ये जनजातियां अपनी नयी पिढ़ी को शिक्षा से जोडकर उन्हें पिछडे वर्ग से बाहर निकालने के लिए प्रयासरत हैं। परन्तु इस समाज की संस्कृति, इनकी कुछ प्रथाएं जो वास्तव में कुप्रथाओं के रूप में विद्यमान है। जनजाति समाज पिछडे समुदायों से है। जनजाति सामाजिक संरचना में कई ऐसी प्रथाएं व सामाजिक समस्याएं प्रचलित हैं जो इस समाज के सदस्यों को किसी न किसी तरह से पीड़ित करती हैं। जिनके कारण जनजाति सदस्यों का शोषण दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इनके साथ ही महिलाओं के अधिकारों के हनन् से सम्बन्धित समस्याएं भी बढ़ रही हैं।

जनजातीय महिलाएं और महिला सशक्तिकरण

            महिला सशक्तिकरण का अर्थ है महिलाओं को राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक क्षेत्रों में बराबर का भागीदार बनाए। परन्तु भारतीय महिलाओं का सशक्तिकरण बहुत हद तक गा्रमीण-शहरी क्षेत्र, जनजाति और गैर-जनजाति सामाजिक संरचनाओं पर निर्भर करता है। शहरी क्षेत्र में और गैर-जनजाति वर्ग की बात की जाए तो यह स्थिति स्पष्ट है कि वर्तमान में ये महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थपित कर रही हैं। शिक्षा एवं आर्थिक स्वतंत्रता ने महिलाओं में नवीन चेतना भर दी है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका में वृद्धि हो रही है। आज महिलाएं राजनीति, बिजनेस, कला तथा खेल सहित रक्षा क्षेत्र में भी नए आयाम गढ़ रही है। सेना जैसे संवेदनशील क्षेत्र में भी महिलाएं अपनी भूमिका का पुरूषों के साथ कदम मिलाकर निर्वहन कर रही हैं। यह महिलाओं की कार्यक्षमता का द्याोतक है, क्योंकि प्रायः कमजोर समझी जाने वाली महिला आज कठिन माने जाने वाले क्षेत्रों में भी अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर रही हैं। इसके पश्चात् भी महिला सशक्तिकरण के लक्ष्य को अब तक पूर्णता प्राप्त नहीं हुई। नारी वह पहलु है जिसके बिना किसी समाज की रचना संभव नहीं है फिर चाहे वो जनजाति समाज हो अथवा गैर-जनजाति समाज।

            जनजाति समाज में महिलाओं की स्थिति देखी जाए तो इस समाज की अधिकांश कुप्रथाएं ऐसी हैं जो जनजातीय महिलाओं का शोषण करती हैं। डायन प्रथा, नातरा प्रथा व दागना प्रथा मानवाधिकार के मौलिक अधिकार के तहत जीवन जीने के अधिकार, क्रुरता व अमानवीय व्यवहार से बचाव का अधिकार, सुरक्षा के अधिकार और राहत पाने के अधिकारों का प्रत्यक्ष रूप से हनन् है। डायन प्रथा, एक ऐसी कुप्रथा है, जिसका प्रभाव आज इक्कीसवीं सदी में भी राजस्थान के कईं ग्रामीण क्षेत्रों में देखा जा सकता है।

डायन प्रथा : वैयक्तिक अध्ययन

      मानव अधिकारों का हनन वस्तुतः जीवन की ही अवमानना है। जीवन की त्रुटिपूर्ण व विपरीत समझ ही व्यक्ति को आत्मकेन्द्रित व परपीड़क बनाती है। फिर ऐसा मनुष्य कभी स्वार्थवश या फिर कभी निम्न वृतियों से संचालित निष्प्रयोजन दूसरों के लिए कांटा बनता रहता है। परिणाम होता है, मानव का मानव के हाथों उत्पीड़न। ऐसा ही एक उत्पीड़़न जनजाति समाज में डायन प्रथा के रूप में पाया जाता है।

      इस प्रथा से महिलाएं प्रभावित हैं। ’डायन’ से तात्पर्य उस महिला से है जिसके द्वारा किसी को छूने पर अथवा देखने पर वह बीमार हो जाए। ऐसा माना जाता है कि उस महिला की नजर खराब है। इन्हें ’कड़क नजर वाली’ महिला भी कहा जाता है। यह मान्यता भी है कि जो महिलाएं किसी विशेष दिन यथा मंगलवार और रविवार को जन्म लेती हैं अधिकांशतः वे महिलाएं डायन होती हैं और उन्ही की नजर कड़क होती है। एक अत्यन्त आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि डायन केवल महिला होती है पुरूष नहीं अर्थात् कड़क नजर सिर्फ महिलाओं की होती है, पुरूषों की नहीं। ये महिलाएं किसी से दुश्मनी होने पर उसके परिवार के सदस्यों को अधिकांशतः बच्चों को प्रताड़ित करती हैं। ये महिलाएं धोणती भी हैं। अगर ये किसी के पीछे-पीछे चलते हुए कोई राग गाती हैं तो आगे चलने वाला धोणने (जोर-जोर से सर हिलाना)लग जाता है और बीमार हो जाता है। ये महिलाएं किसी का खाना-पीना छुड़वा सकती हैं, पढ़ाई से दूर कर सकती हैं, मानसिक रूप से बीमार कर सकती हैं, यहां तक की किसी को जान से भी मार सकती हैं। नारी के बिना पुरूष की कल्पना भी नहीं की जा सकती और ऐसे उदाहरण समाज को संदेश देते हैं कि महिला सशक्तिकरण की सोचउकोरी कल्पना लगती है।

      प्रत्येक स्त्री-पुरूष को सभी मनुष्यों के समान सम्मान से जीवन जीने का अधिकार है। परन्तु जनजाति समाज में पायी जाने वाली यह प्रथा प्रताड़ित महिला के इस अधिकार को सिरे से खारिज कर रही है और हर रोज एक महिला इस प्रथा से पीड़ित अपने मानवाधिकार के हनन को भोग रही है।

      इस प्रथा के सम्बन्ध में अधिक जानकारी हेतु दक्षिणी राजस्थान के जनजाति उपयोजना क्षेत्र के डूंगरपुर व उदयपुर जिले के चयनित अनुसंधान क्षेत्र से डायन प्रथा से सम्बन्धित दो वैयक्तिक अध्ययन किये गये हैं। इन प्रसंगों का उल्लेख यहां किया जा रहा है जो मानव अधिकारों को मजबूती से लागू करने को प्रेरित करते हैं और इस वर्ग की महिलाओं के सशक्तिकरण के दावे को एक तरफ रख कर उन्हें स्वाभिमान से जीवन जीने के अधिकार की मांग को पुख्ता करते हैं। डायन प्रथा से सम्बन्धित वैयक्तिक अध्ययन निम्न प्रकार से है-

केस - 1

            मानवाधिकार हनन के क्रम में डायन प्रथा रूपी कुप्रथा से प्रताड़ित महिला ’अ’ कईं सालों से डायन होने का दंश झेल रही हैं। उक्त महिला डूंगरपुर जिले की सरकण साई गांव की मूल निवासी हैं, अपने पति व सबसे छोटे बेटे-बहू के साथ रहती हैं। इसके तीन बेटे व दो बेटियां हैं। जिनका विवाह हो चुका है। दोनों बड़े बेटों के दो-दो बच्चे हैं परन्तु तीसरे बेटे के कोई बच्चा नहीं है। महिला अनपढ़ है परन्तु उन्होने अपने सभी बच्चों को पढ़ाया है। तीनों बेटों ने क्रमशः 8वीं, 10वीं तथा 11वीं की पढ़ाई कर रखी है। बड़े दो बेटे प्राईवेट नौकरी करते हैं तथा तीसरा बेटा मकानों की कारीगरी का कार्य करता है। महिला के पति खेतों की रखवाली करते हैं और ये महिला स्वयं खेतों के साथ-साथ कभी-कभी नरेगा में काम करने भी जाती हैं। इस प्रकार इस परिवार की मासिक आय 5000 से 6000 है जिससे यह परिवार मुश्किल से अपना भरण-पोषण कर पाता है।

            महिला ’अ’ कईं वर्षों से इसी गांव की मूल निवासी हैं और वर्षों से इस कुप्रथा से पीड़ित हैं। इस महिला को डायन होने का आरोप तब मिला जब गांव का ही एक व्यक्ति उसके घर गया और कुछ समय पश्चात् असकी मृत्यु हो गई। गांव वालों का कहना है कि उक्त महिला ने उस व्यक्ति को चाय में कुछ मिलाकर पिला दिया परिणामस्वरूप उस व्यक्ति के पेट में गांठ हो गई। कुछ समय पश्चात् वह गांठ पेट में ही फूट गई और उस व्यक्ति की मृत्यु हो गई। यहां तक कि इस महिला पर तो उसके अपने पोते को ही खा जाने का आरोप भी है जिसकी उम्र लगभग 17-18 वर्ष थी। अर्थात उसके पोते की मृत्यु का कारण भी उसे ही माना जाता है।

            इस महिला के सम्बन्ध में गांव वालों से भी बात की गई। गांव के लोगों का कहना है कि वो तो किसी को डायन नहीं कहते डायन जैसा कुछ होता ही नहीं है। इस सम्बन्ध में पूछने पर गांव के लोग चुप हो जाते हैं, या जवाब देने में आनाकानी करते हैं। इस प्रकार किसी भी तरह इस तरह के सवालों से पीछा छुड़ाने की कोशिश करते हैं। गांव के लोग यह बात जानते हैं कि किसी को डायन कहकर प्रताड़ित करना गैर-कानूनी है। डायन के सम्बन्ध में जो विचार एवं मान्यताए गांव वालों की हैं वह अत्यन्त गहनता से पूछने पर तथा सुचनाएं गुप्त रखने के विश्वास पर ही मिलीं । गांव के लोग जानते हैं कि यदि यह उजागर हो गया कि हम डायन महिलाओं के प्रति कैसी धारणाएं रखते हैं तो सजा हो सकती है।

            जब अनौपचारिक रूप से गांव वालों से बात की गई तब उन्होंने डायन के सम्बन्ध में बताया की डायन का प्रकोप इतना बुरा है कि कईं बार तो जान लेकर ही छोड़ता है। इसी गांव की आंगनवाड़ी कार्यकत्र्ता का भी यही मानना है कि उक्त महिला की वजह से वह स्वयं भी एक बार बीमार हुई है और स्वस्थ होने में उसे बहुत समय लग गया था। पड़ोसियों व रिश्तेदारों से भी बात हुई तो उन्होंने उक्त महिला तथा इस जैसी अन्य महिलाओं के प्रकोप से बचने के लिये कईं नुस्खे भी बताए। इनके अनुसार ऐसी महिलाओं को नाराज़ करने से बचना चाहिए। परन्तु यदि किसी कारणवश ऐसा हो जाए कि ऐसी कोई महिला नाराज़ हो जाए या किसी बात से गुस्सा हो जाए तो उसके उस स्थान से हटते ही उसके पैरों की धूल को अपने ऊपर से उतार कर फेंक देना चाहिए। इससे उसका प्रकोप कम हो जाता है।

            गांव के लोग इस महिला से दूर रहते हैं, उससे कोई व्यवहार नहीं रखा जाता। उससे बात नहीं की जाती। उसे देखकर लोग मुंह फेर लेते हैं। गांव की महिलाएं घूंघट डाल लेती हैं। गांव के लोगों की मान्यता है कि ऐसी औरत को कभी नाराज़ नहीं करना चाहिए इसीलिये वो जो मांगती है उसे दे दिया जाता है, जो कहती है मान किया जाता है। कैसे भी करके उसे उस स्थान से हटाने की कोशिश की जाती है जहां वह है। ऐसी महिलाओं को कई बार मारपीट कर सजा देनेे की कोशिश भी की जाती है। उस महिला के प्रति लोगों का यह व्यवहार अमानवीयता का प्रदर्शन करता है।

            महिला ’अ’ इस प्रथा से पीड़ित होने के कारण समाज से पूरी तरह से पृथक होकर अपना जीवन-यापन कर रही है। घर से बाहर निकलने पर वे केवल अपना काम करके पुनः अपने घर में आ जाती है। न तो वे किसी से बात करती हैं, न कोई उससे बात करता है। उम्र के इस पड़ाव में भी यह महिला एक अपराधी तथा अछूत जैसा जीवन-यापन कर रही है। उक्त महिला स्वयं भी जानती हैं कि गांव वाले उन्हे क्या समझते हैं तथा उन्हे लेकर उनके मन मेें क्या विचार हैं। लेकिन वे अपना जीवन जी रही हैं। वे ये मानती हैं कि उनकी आधी से अधिक उम्र निकल गई और जो बची है वो भी निकल जाएगी। दुःख केवल इतना है कि वे सामान्य जीवन नहीं जी सकती। दूसरे लोगों की तरह एक साथ बैठकर अपने सुख-दुःख को किसी के साथ बांट नहीं सकती। न तो वे किसी के घर जाती है ना ही कोई उनके घर आना पसंद करता है। अगर कुछ काम होता भी है तो वे सामने से बात कर लेती हैं और उससे काम हो तो वह लोग प्रेम से बात कर लेते हैं। खुशी इस बात की है कि भले डर से ही सही पर जब भी उससे बात होती है खुशी-खुशी और प्रेम से की जाती है। उनके लिये इतना ही बहुत है।

            पीड़ित महिला तथा उसके परिवार वालों से भी इस सम्बन्ध में बात की गई कि क्या आपने गांवो वालों द्वारा किये जाने वाले इस व्यवहार की शिकायत पुलिस प्रशासन अथवा जनजाति नेता किसी से की ? तो इस सम्बन्ध में पीड़ित महिला का कहना है कि प्रत्यक्ष रूप से इस प्रकार का कोई व्यवहार नहीं किया जाता जिसकी शिकायत की जा सके। जो व्यवहार किया जाता है वो पीठ पीछे किया जाता है। हमारे सामने तो सब अच्छे से बोलते हैं। इसका एहसास नहीं कराया जाता कि हमें लेकर वे लोग क्या सोचते हैं।     

            संक्षेप में कहा जा सकता है कि डायन नामक कुप्रथा ने उक्त महिला के जीवन को बहुत प्रभावीत किया है। ये महिला सामान्य जीवन नहीं जी पा रही हैं। गांव के लोगों द्वारा मानसिक रूप से प्रताड़ित हो रही हैं। यद्यपि इस महिला ने गांव वालों, रिश्तेदारों व पड़ौसियों के प्रति कोई नाराजगी नहीं जताई परन्तु उनका दुःख उनके चेहरे पर साफ झलकता है। महिला का जीवन घर और खेतों तक सिमट कर रह गया है। लोगों के इस व्यवहार के कारण ही कई बार ना तो वे किसी का सुख-दुःख बांट पाती हैं, ना ही स्वयं का सुख-दुःख साझा कर पाती हैं।

            ये कभी-कभी स्वयं को कोसने लगती हैं कि आखिरकार उनके साथ ही ऐसा क्यों हुआ। ऐसा जीवन जीने से क्या फायदा जिसमें लोग उनसे दूर भागे। उन्हे अपने पर लगा यह डायन का आरोप एक अभिशाप लगता है जो उनके अनुसार उनकी मृत्यु के बाद भी उनके साथ ही जाएगा।

केस - 2

            प्रताड़ित महिला ‘ब’ उदयपुर जिले के झाड़ोल तहसील की निवासी हैं। ये अपने सास-श्वसुर, पति व बच्चों के साथ कईं सालों से यहीं रहती हैं। महिला की उम्र-45 वर्ष हैं और प्राथमिक स्तर तक शिक्षा प्राप्त की है। इनके खेत बहुत बड़े है जिसके कारण इनका पूरा परिवार खेतों में ही काम करता है। पति की उम्र-52 वर्ष हैं, वे खेतों के साथ-2 त्यौंहारों व विवाह आदि के समय में घरों के रंग-रोगन का कार्य करते हैं। महिला के सास-श्वसुर की उम्र लगभग 6572 वर्ष है। ये भी महिला व उसके पति के साथ खेतों मे काम करते हैं। महिला के 2 बच्चे हैं, दोनों ही बेटे हैं एक बेटा 10वीं की परीक्षा दे रहा है तथा दूसरा बेटा 7वीं की परीक्षा दे रहा है। इस परिवार की मासिक आय 12000 से 15000 हजार है।

            उक्त महिला सामान्य जीवन जी रहीं थीं लेकिन एक दिन अचानक इनका झगड़ा पड़ोस की एक दूसरी महिला से हो गया, बात हाथापाई तक आगे बढ़ गई, परन्तु दोनों के परिवार वालों व गांव वालों की मदद से दोंनों को समझाइश करके झगड़ा खत्म किया गया। दूसरे दिन जब इस महिला से झगड़ा करने वाली महिला की बेटी स्कूल पहुंची तो वह प्रार्थना के समय धूणने लगी। स्कूल के अध्यापकों ने उसे संभाला पर वह ठीक नहीं हुई। तत्पश्चात् उसके अध्यापकों ने बच्ची के पिता को फोन करके उन्हंे बुलाया, माता-पिता उसे घर ले गए। घर आते ही वह बच्ची ठीक हो गई। बच्ची के परिवार वालों को शक हुआ कि कहीं बच्ची को कुछ भूत-प्रेत तो नहीं लगा ? परन्तु तब वे लोग शान्त रहे। दूसरे दिन पुनः वह बच्ची स्कूल गयी और फिर से धूणने लगी, स्कूल वालों ने बच्ची के अभिभावकों को पाबंद किया कि जब तक बच्ची ठीक ना हो जाये उसे स्कूल ना भेजा जाए।

            बच्ची के परिवार वालों को यकीन हो गया कि उनकी पड़ोस वाली महिला ने ही उनकी बच्ची को बीमार किया है। उसके बाद से जब भी किसी बच्चे को केाई तकलीफ होती महिला ‘ब’ पर शक किया जाता। धीरे-धीरे पूरे गांव ने महिला ‘ब’ के डायन होने की पुष्टि कर दी।

            बात यहां तक पहुंच गई कि जिस महिला से पीड़ित महिला का झगड़ा हुआ था उस महिला के पति व परिवार के दो अन्य पुरूष सदस्यों ने पीड़ित महिला पर डायन का आरोप लगाकर उससे मारपीट कर दी। कुल्हाड़ी व पत्थरों से लेस होकर आये व पीड़िता को चोटें पहुंचाई। महिला के परिवार वालों ने जैसे-तैसे उन हथियारबंद लोगों से अपनी व महिला की जान बचाई।

            पीड़ित महिला ने अगले ही दिन पुलिस उपधीक्षक को परिवाद सौंप न्याय की मांग की। परिणामस्वरूप झाड़ोल पुलिस ने सभी आरोपियों को न्यायालय में पेश किया तथा जमानत मुचलकों पर छः माह के लिये पाबंद किया इसके बावजूद हमलावरों ने पुनः मारपीट की। पीड़ित महिला ने पुनः कार्यवाही की मांग की है।

            पड़ौसियों व रिश्तेदारों से जब पीड़ित महिला के संबंध मे बात की तो उनका मानना है कि यह महिला सामान्य थी परन्तु अब पता नहीं वह ऐसा व्यवहार क्यों कर रही है ? उनका मानना है कि वो महिला को डायन तो नहीं कहते परन्तु ये मानते है कि अब वे बच्चों पर जादू टोना करने लगी है क्योंकि जो भी बच्चा उसके आस-पास दिखता है वह बीमार हो जाता है।

            गांव वालों का मानना है कि ये महिला जादू-टोना करके बच्चों को अपने वश में करने की कोशिश करती हैं। जिससे भी इसका झगड़ा या बहस होती है उसका बच्चा बीमार हो जाता है तो इसका क्या मतलब निकालें ? यह महिला डायन है, इसकी नजर खराब है। गांव के लोगों ने अब इस महिला से बात करना और किसी भी प्रकार का व्यवहार करना छोड़ दिया है। गांव वाले अपने बच्चों को इसके आसपास भी नहीं फटकने देते।

            पीड़ित महिला के परिवार वालों से बात की तो उनका कहना है कि गांव वाले जबरदस्ती हमें बदनाम कर रहे हैं, यहां केाई डायन नहीं रहती। हमारे घर में भी बच्चे हैं हम भी झगड़ा करते हैं, यहां तो केाई बीमार नहीं होता। पीड़ित महिला के बच्चे कहते हैं कि हमारी मां डायन नहीं है लोगों को समझाईये वो उन्हे ऐसा ना कहें।

            पीड़ित महिला से जब उनके बारें में पूछा गया तो उनकी रूलाई फूट पड़ी। वे कहती हैं कि वे तो किसी बच्चे को बुरी नजर से नहीं देखतीं। हां, किसी से उसका झगड़ा होता है तो वो गुस्सा जरूर करती हैं, उसे कोसती हैं पर वो उनके बच्चों को नुकसान पहुंचाने का कभी नहीं सोचती गांव वालों को यह यकीन हो गया है कि वे डायन है, इस बात का उन्हे अफसोस है। उनका विश्वास है कि वे पुनः उनका विश्वास जीतेंगी और सामान्य जीवन यापन करंेगी।

            उक्त प्रकरण से स्पष्ट है कि पीड़ित महिला जो सामान्य जीवन जी रही थीं अचानक हुए हादसे ने उनका जीवन बदल दिया। जो महिला पूरे गांव के लोगों से हंसती बोलती थी अचानक ही उस महिला के प्रति लोगों का रवैया बदल गया। अगर वास्तव में वे डायन हैं तो उन्होनेे गांव के लोगों को इस बात की सजा क्यों नहीं दी, उन्हें नुकसान क्यों नहीं पहुंचाया। यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि इस और किसी का ध्यान ही नहीं गया।

            पीड़ित महिला का परिवार और विशेषकर बच्चे अपनी मां की ऐसी हालत को देखकर अत्यन्त दुःखी है मां के साथ-साथ बच्चे भी सजा भुगत रहे हैं। स्कूल में, गांव में, कहीं न कहीं से मां के डायन होने का उलाहना उन्हें मिलता ही रहता है। जो उन्हें मानसिक रूप से प्रभावित कर रहा है। बच्चे अकेले-अकेले स्कूल जाते हैं तथा खेलकूद में भी कोई बच्चा उनके साथ नहीं होता। एक महिला के साथ उसका पूरा परिवार इस कुप्रथा से प्रताड़ित हो रहा है।

निष्कर्ष -

            जैसा की पहले ही कहा जा चुका है कि इस लेख का उद्देश्य महिला सशक्तिकरण की सार्थकता को उजागर करने का है। अतः जनजाति समाज में पायी जाने वाली डायन प्रथा को वैयक्तिक अध्ययन के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। उपर्युक्त सभी उदाहरण एक ओर डायन प्रथा सम्बन्धी कार्यकलापों को दिखाते हैं और दूसरी और उन व्यक्तियों के आचरणों को प्रस्तुत करते हैं जो आरोपांे के माध्यम से कानून व्यवस्था को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। प्रभावित व्यक्ति तथा पीड़ित दोनों को हो कानूनी और सामाजिक संरक्षण की आवश्यकता है। मानव अधिकार यहां इसी दृष्टि से प्रभावी हैं। इस प्रथा को 2015 में गैर-कानूनी घोषित किया जा चुका है। फिर भी कईं गांवों में यह प्रथा आज भी प्रचलीत है। प्रश्न यह है कि महिला सशक्तिकरण का एक प्रभावी मंच कैसे तैयार होगा ? जो परिस्थितियां हैं उससे तो केवल कुछ खास दिवस पर महिलाओं के आगे लाने के नारे और जोर-शोर से मंच पर भाषण इसकी खानापूर्ती करते नजर आते हैं।

            इन कुप्रथाओं को समाप्त करने की सोच तभी विकसित की जा सकती है जब इस बारे में जनजाति सदस्य व युवा वर्ग सुने, समझे और जागरूक हों जबकि कईं युवा तो डायन नाम सुनते ही कोसो दूर भाग जाते हैं। उनका मानना होता है कि कौन दुश्मनी ले, और क्यों ले। किसी का जन्म और मृत्यु किसी के हाथ में नहीं है फिर किसी महिला के जन्म लेने के दिन को हम शुभ-अशुभ या उस दिन को बुरा कैसे मान सकते हैं। डायन प्रथा ऐसी कुप्रथा है जो अत्यन्त गंभीर स्थितियों को जन्म दे रही है, और दिन के आधार पर व्यक्ति के व्यवहार को निश्चित करना अमानवीय है।

            मानवाधिकार के दृष्टि से देखा जाय तों आधुनिक युग प्रजातन्त्र का युग है। आज स्वतन्त्रता मनुष्य की प्रथम मांग है। सुविधाओं तथा स्वतन्त्रताओं में मानवाधिकार मुख्य हैं। ये नागरिकों के सर्वांगीण विकास का मूल आधार हैं। वृक्ष के लिये जो महत्व जड़ का है वही महत्व नागरिकों के लिये इन अधिकारों का है। अतः यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार जीवन धारण करने की मूल आवष्यकताएं हवा, पानी, भोजन है उसी प्रकार जीवन की समग्रता को प्राप्त करने की आवश्यक स्थितियां मानवाधिकार हैं। जनजाति महिलाओं को भी यह अधिकार उसी समानता के साथ प्राप्त हैं। 

            सही मायनों में महिलाओं को सशक्त करना है तो आवश्यक है कि पहले उन्हें उनके जीवन जीने के मूलभूत अधिकारों से अवगत कराया जाय। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं पर ध्यान दिया जाय और इन क्षेत्रों में व्याप्त विभिन्न कुप्रथाओं पर कडे कानून बनाए जाय साथ ही उन्हें धरातल स्तर पर कठोरता से लागु भी किया जाय। जिस दिन समाचार पत्रों में महिलाओं की प्रताडना और उनके शोषण की खबरें कम व उनके उत्थान और सफलता की खबरें ज्यादा होंगी तब सही मायनों में महिला सशक्तिकरण सफल होगा।

सन्दर्भ ग्रन्थ -

            गुप्ता, आशा, (2004).जनजातीय सांस्कृतिक अस्मिता (राजस्थान की लोक कला एवं लोक संगीत),

      उदयपुर: हिमांशु पब्लिकेशन.

            जोशी, आर.पी.,(2009).मानवाधिकार एवं कर्तव्य, अजमेर : अभिनव प्रकाशन.

            मीणा, आालोक कुमार, (2014).भारत में मानव अधिकार : अवधारणा, जयपुर : पोईन्टर पब्लिशर्स.

            यादव, पूरणमल, (2002).दलित संघर्ष और सामाजिक न्याय, जयपुर : आविष्कार पब्लिशर्स.

 

 

 

 

प्रकाशित : महिला सशक्तिकरण नव विमर्श, डॉ. वर्मा ; डॉ खंगारोत, राज पब्लिशिंग हाउस, जयपुर

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